

देश के कई राज्यों के विधानसभा चुनावों को भी इतनी अहमियत और सुर्खियां नहीं मिलतीं जितनी इस बार पश्चिम बंगाल में होने वाले पंचायत चुनावों को मिली हैं.
नामांकन प्रक्रिया की शुरुआत से ही इसने हिंसा और अदालती विवाद का एक नया रिकार्ड बनाया है. लेकिन यह सब बेवजह नहीं हैं. दरअसल, बंगाल के ग्रामीण इलाकों से ही सत्ता की राह निकलती है.
तृणमूल कांग्रेस के प्रवक्ता डेरेक ओ ब्रायन तो कहते हैं, ”अगले साल दिल्ली तक जाने वाला रास्ता भी राज्य के ग्रामीण इलाकों से ही शुरू होगा.”
राज्य में अबकी पंचायत चुनाव सत्तारुढ़ तृणमूल कांग्रेस के अलावा तेजी से नंबर दो की ओर बढ़ती भाजपा के लिए ग्रामीण इलाकों में अपनी पकड़ को मापने का पैमाना बन गया है.
‘करो या मरो’
इसके साथ ही अपने वजूद की लड़ाई लड़ रही कांग्रेस और माकपा के लिए भी यह ‘करो या मरो’ की लड़ाई है. यही वजह है कि जहां तृणमूल कांग्रेस ने राज्य में त्रिस्तरीय पंचायतों पर कब्जे के लिए पूरा तंत्र झोंक दिया है वहीं विपक्षी राजनीतिक दलों ने भी अबकी आर या पार की तर्ज पर इसमें पूरी ताकत झोंक दी है.
अगले साल होने वाले लोकसभा चुनावों से पहले आखिरी प्रमुख चुनाव होने की वजह से अबकी इन चुनावों की अहमियत काफी बढ़ गई है. लेकिन यही अकेली वजह नहीं है. यह चुनाव तो हर बार लोकसभा चुनावों के साल भर पहले ही होते रहे हैं.
इस बार बंगाल की सत्ता पर काबिज होने का सपना देखती भाजपा के उभार, बीते लोकसभा चुनावों के बाद उसे मिलने वाले वोटों में बढ़ोतरी और कांग्रेस और माकपा जैसे राज्य के पारंपरिक दलों के हाशिए पर सिमटने जैसे तथ्यों ने इन चुनावों को काफी अहम बना दिया है.