

रमाजन का पाक महीना शुरू हो गया है। आज से मुस्लिम समुदाय के लोग पूरे 30 दिन रोजा रखेंगे। इस्लामी कैलेंडर का नौवां महीना रमजान है जिसे अरबी भाषा में रमादान कहते हैं। नौवें महीने यानी रमजान को 610 ईस्वी में पैगंबर मोहम्मद पर कुरान प्रकट होने के बाद मुसलमानों के लिए पवित्र घोषित किया गया था। रोजे रखना इस्लाम के पांच स्तंभों (कलमा, नमाज, जकात, रोजा और हज ) में से एक है। अल्लाह रोजेदार और इबादत करने वालों की दुआ कूबुल करता है और इस पवित्र महीने में गुनाहों से बख्शीश मिलती है। इस आर्टिकल में हम आपको बता रहे हैं कि रमजान में तराहवी, जकात, चांद, सहरी, इफ्तार, अलविदा जुमा और खजूर आदि का क्या महत्व होता है।
1) सहरी
रमजान के पाक महीने में मुस्लिमों द्वारा रोजा रखने से पहले सुबह जल्दी खाने वाले भोजन को सहरी कहा जाता है। इस खाने को फज्र की नमाज से पहले खाया जाता है। इसके बाद रोजा रखने की दुआ पढ़कर रोजा रखा जाता है।
2) रोजा रखने की दुआ या रोजा रखने की नीयत
रोजेदारों को रोजा रखने के लिए रोजा रखें के दुआ पढ़नी होती है। सहरी करने के बाद ये दुआ पढ़ते हैं। दुआ इस प्रकार है- ‘व वे सोमे गदिन नवैतो मिन शहरे रमजान’ अर्थात् मैंने माह रमजान के कल के रोजे की नियत की। रोजा रखने की दुआ को मुंह से पढ़ना बेहतर माना गया है लेकिन कोई रोजा रखने के लिए ‘आज मैं रोजा रखूंगा या कल मैं रोजा रखूंगा’ कहकर भी रोजा रख सकता है।
3) रोजा खोलने की दुआ या रोजा खोलने की नीयत
इस दुआ को इफ्तार के समय रोजा खोलने से पहले पढ़ा जाता है और इसके बाद ही कुछ खाया जाता है। दुआ इस प्रकार है- ‘अल्लाहुम्म लका सुम्तो व अला रिज़क़िका अफतरतो’
4) इफ्तार
मुस्लिमों द्वारा रमजान के दिनों रोजा खोलने के लिए खाया जाने वाला भोजन इफ्तार कहलाता है। यह रोजेदारों का दिन का दूसरा भोजन होता है, जिसे मगरिब की नमाज से पहले खाया जाता है।
5) रमजान में खजूर का महत्त्व
इस्लाम अरब से शुरू हुआ था और वहां पर खजूर आसानी से उपलब्ध फल था। यहीं से खजूर का इस्तेमाल शुरू किया गया। रोजा खजूर खा कर ही खोला जाता है। हालांकि लोग पानी पीकर भी रोजा खोलते हैं। खजूर में काफी मात्रा में फाइबर होता है, जो शरीर के लिए बेहद जरूरी होता है। खजूर खाने से पाचन तंत्र मजबूत रहता है। खजूर के सेवन से शरीर को ताकत मिलती है। खजूर का सेवन करने से कोलेस्ट्रॉल लेवल भी कम होता है, जिससे दिल की बीमारीयां होने का खतरा नहीं रहता है। खजूर में आयरन पाया जाता है, जोकि खून से संबंधित बीमारियों से निजात दिलाता है। इसके अलावा खजूर में पोटेशियम काफी मात्रा में होता है, वही सोडियम की मात्रा कम होती है, ये नर्वस सिस्टम के लिए फायदेमंद होता है।
6) तराहवी
तरावीह मुस्लमानों द्वारा रमजान के माह में रात्रि में की जाने वाली अतिरिक्त नमाज (प्रार्थना) है। रमजान के महीने में इशा की नमाज के बाद नमाज के रूप में तराहवी अदा की जाती है जिसमें कुरान पढ़ी जाती है। तरावीह महिलाओं और पुरुषों के सब के लिए जरूरी है। खुद हुज़ूर ने भी तरावीह पढ़ी और उसे बहुत पसंद फरमाया। तरावीह के लिए पहले इशा की नमाज पढ़ना जरूरी है। तरावीह अगर छूट गई और समय खत्म हो गया तो नहीं पढ़ सकते। तरावीह में एक बार क़ुरआन पाक खत्म करना सुन्नत-ए-मौअक्कदा है। अगर कुरआन पाक पहले खत्म हो गया, तो तरावीह आखिर रमज़ान तक बराबर पढ़ते रहें क्योंकि यह सुन्नत-ए-मौअक्कदा है।
7) रमजान का चांद
ईद-उल-फ़ितर हिजरी कैलंडर (हिजरी संवत) के दसवें महीने शव्वाल यानी शव्वाल उल-मुकरर्म की पहली तारीख को मनाई जाती है। हिजरी कैलेण्डर की शुरुआत इस्लाम की एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक घटना से मानी जाती है, हजरत मुहम्मद द्वारा मक्का शहर से मदीना की ओर हिजरत करने की। हिजरी संवत जिस हिजरी कैलेण्डर का हिस्सा है वह चांद पर आधारित कैलेण्डर है। इस कैलेण्डर में हर महीना नया चांद देखकर ही शुरू किया जाता है। ठीक इसी तर्ज पर शव्वाल महीना भी ‘नया चांद’ देखकर ही शुरू होता है और हिजरी कैलेण्डर के मुताबिक रमजान के बाद आने वाला महीना होता है शव्वाल। ऐसे में जब तक शव्वाल का पहला चांद नजर नहीं आता रमजान के महीने को पूरा नहीं माना जाता। और शव्वाल का चांद नजर न आने पर माना जाता है कि रमजान का महीना मुकम्मल होने में कमी है और इसी वजह से ईद अगले दिन या जब भी चांद नजर आता है तब मनाई जाती है।
8) रमजान में जकात
रमजान माह में जकात व फितरा का बहुत बड़ा महत्व है। ईद के पहले तक अगर घर में कोई नवजात शिशु भी जन्म लेता है तो उसके नाम पर फितरा के रूप में पौने तीन किलो अनाज गरीबों-फकीरों के बीच में दान किया जाता है। इस्लाम धर्म में जकात (दान) और ईद पर दिया जाने वाले फितरा का खास महत्व है। रमजान माह में इनको अदा करने से महत्व और बढ़ जाता है। समाज में समानता का अधिकार देने एवं इंसानियत का पाठ पढ़ाने के लिए फितरा फर्ज है। रोजे की हालत में इंसान से कुछ भूल-चूक हो जाती है। जबान और निगाह से गलती हो जाती है। इन्हें माफ कराने के लिए सदका दिया जाता है। वह शख्स जिस पर जकात फर्ज है उस पर फित्र वाजिब है। यह फकीरों, मिसकीनों (असहाय) या मोहताजों को देना बेहतर है। ईद का चांद देखते ही फित्र वाजिब हो जाता है। ईद की नमाज पढ़ने से पहले इसे अदा कर देना चाहिए।
9) अलविदा जुमा
रमजान के महीने में आखिरी जुमा (शुक्रवार) को ही अलविदा जुमा कहा जाता है। इस अलविदा जुमे के बाद लोग ईद की तैयारियों में लग जाते है। जुमा अलविदा रमजान माह के तीसरे अशरे (आखिरी 10 दिन) में पड़ता है। यह अफजल जुमा होता है। इससे जहन्नम (दोजक) से निजात मिलती है। यह आखिरी असरा है, जिसमें एक ऐसी रात होती है, जिसे तलाशने पर हजारों महीने की इबादत का लाभ एक साथ मिलता है। यूं तो जुमे की नमाज पूरे साल ही खास होती है पर रमजान का आखिरी जुमा अलविदा सबसे खास होता है। अलविदा की नमाज में साफ दिल से जो भी दुआ की जाती है, वह जरूर पूरी होती है।
10) ईद
इस त्यौहार की अहम बात यह है कि रमजान महीने के 30 रोजों के ख़त्म होने के बाद आसमान में चांद देखकर ईद मनाई जाती है। इसे लोग ईद-उल-फित्र भी कहते हैं। पैगम्बर हजरत मुहम्मद ने बद्र के युद्ध में शानदार विजय हासिल की थी। इस युद्ध में उनके जीतने की खुशी में ही यह पाक और खुशियों का त्यौहार पूरी दुनिया में मनाया जाता है। एक और ऐसी मान्यता है कि 624 ईस्वी में पहला ईद-उल-फित्र मनाया गया था। आपको बता दे कि इस्लामिक कैलेंडर के अनुसार दो ईद मनाई जाती हैं। दूसरी ईद जो ईद-उल-जुहा या बकरीद के नाम से भी विश्व में जानी जाती है। ईद-उल-फित्र का यह मिठास से भरा त्यौहार रमजान महीने का चांद डूबने और ईद का चांद नजर आने पर इस्लामिक महीने की पहली तारीख को ही मनाया जाता है। इस दुनिया में जितने भी इस्लाम धर्म को मानते है उनका यह फर्ज होता है कि अपनी हैसियत और ईमानदारी के हिसाब से इस दिन गरीब और जरूरतमंद लोगों को दान-चंदा दें। एक और अहम बात इस दान को इस्लाम धर्म में जकात और फितरा भी कहा जाता है।