भगवान विष्णु का पाषाणरूप है शालग्राम


हिमालय पर्वत के मध्यभाग में शालग्राम-पर्वत (मुक्तिनाथ) है, यहां भगवान विष्णु के गण्डस्थल से गण्डकी नदी निकलती है, वहां से निकलने वाले पत्थर को शालग्राम कहते हैं । वहां रहने वाले कीड़े अपने तीखे दांतों से शिला को काट-काट कर उसमें चक्र, वनमाला, गाय के खुर आदि का चिह्न बना देते हैं । भगवान विष्णु सर्वव्यापक होने पर भी शालग्राम शिला में साक्षात रूप से रहते हैं जैसे काठ में अग्नि गुप्त रूप से रहती है; इसीलिए इनकी प्राण-प्रतिष्ठा की आवश्यकता नहीं होती है और पूजा में भी आवाहन और विसर्जन नहीं किया जाता है ।

एक बार श्रीगोपालभट्टजी गण्डकी नदी में स्नान कर रहे थे, तो सूर्य को अर्घ्य देते समय एक अद्भुत शालग्राम शिला उनकी अंजुली में आ गयी जिसे वे वृन्दावन लाकर पूजा-अर्चना करने लगे । एक दिन एक सेठ ने वृंदावन में भगवान के सभी विग्रहों के लिए सुन्दर वस्त्र-आभूषण बांटे । श्रीगोपालभट्टजी को भी वस्त्र-आभूषण मिले परन्तु वे उन्हें शालग्राम को कैसे धारण कराते ? भट्टजी के मन में भाव आया कि अगर मेरे आराध्य के भी अन्य विग्रहों की तरह हस्त और पाद होते तो मैं भी उन्हें सजाता । यह विचार करते हुए उन्हें सारी रात नींद नहीं आयी । प्रात:काल जब वे उठे तो उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा क्योंकि उनके शालग्राम द्वादश अंगुल के ललित त्रिभंगी दो भुजाओं वाले मुस्कराते हुए श्रीराधारमनजी बन गए थे । इस प्रसंग के लिए इससे ज्यादा सुन्दर उदाहरण और कोई हो नहीं सकता ।

छलपूर्वक तुलसी का पातिव्रत-भंग करने के कारण भगवान श्रीहरि को शाप देते हुए तुलसी ने कहा कि आपका हृदय पाषाण के समान है; अत: अब मेरे शाप से आप पाषाणरूप होकर पृथ्वी पर रहें । भगवान विष्णु पतिव्रता तुलसी (वृन्दा) के शाप से शालग्राम शिला बन गए । वृन्दा भी तुलसी के रूप में परिवर्तित हो गयीं । शालग्रामजी पर से केवल शयन कराते समय ही तुलसी हटाकर बगल में रख दी जाती है, इसके अलावा वे कभी तुलसी से अलग नहीं होते हैं । जो शालग्राम पर से तुलसीपत्र को हटा देता है, वह दूसरे जन्म में पत्नी विहीन होता है ।