इन तैरने वाले पत्थरों का इस्तेमाल हुआ था राम सेतु में


आपने तैरने वाले पत्थर के बारे में सुना होगा. कहा जाता है कि रामसेतु में इन्हीं तैरने वाले पत्थरों का इस्तेमाल किया गया था. रामसेतु का असली नाम नल-नील सेतु है. भारत के दक्षिणी भाग के अलावा श्रीलंका, जापान सहित अनेक स्थानों में ऐसे पत्थर मिलते हैं. ये सामान्यतः द्वापों, समुद्र तट, ज्वालामुखी के नजदीकी क्षेत्रों पर काफी मात्रा में मिलते हैं.

नल और नील के सानिध्य में वानर सेना ने 5 दिन में 30 किलोमीटर लंबा और 3 किलोमीटर चौड़ा पुल तैयार किया था. शोधकर्ताओं के अनुसार इसके लिए एक विशेष प्रकार के पत्थर का प्रयोग किया गया था, जिसे विज्ञान में ‘प्यूमाइस स्टोन’ कहा जाता है.

यह पत्थर पानी में नहीं डूबता है. रामेश्वरम में आई सुनामी के दौरान समुद्र किनारे इस पत्थर को देखा गया था. आज भी भारत के कई साधु-संतों के पास इस तरह के पत्थर हैं.

तैरने वाले ये पत्थर ज्वालामुखी के लावा से आकार लेते हुए अपने आप बनता है. ज्वालामुखी से बाहर आता है हुआ लावा जब वातावरण से मिलता है तो उसके साथ ठंडी या उससे कम तापमान की हवा मिल जाती है.

यह गर्म और ठंडे का मिलाप ही इस पत्थर में कई तरह के छेद कर देता है, जो अंत में इसे एक स्पंजी, जिसे आम भाषा में खंखरा कहते हैं, इस प्रकार का आकार देता है. प्यूमाइस पत्थर के छेदों में हवा भरी होती है, जो इसे पानी से हल्का बनाती है, जिस कारण यह डूबता नहीं है.

लेकिन जैसे ही धीरे-धीरे इन छिद्रों में पानी भरता है तो य पत्थर भी पानी में डूबना शुरू कर देता है. यही कारण है कि रामसेतु पुल कुछ समय बाद डूब गया था और बाद में इस पर अन्य तरह के पत्थर जमा हो गए.

माना जाता है कि रामसेतु के लिए प्रारंभ में डूबने वाले पत्थरों को डालकर एक बेस बनाया गया होगा और फिर तैरने वाले पत्थरों को इकट्ठा करके उन्हें आपस में रस्सी से अच्छी तरह बांधा गया होगा. माना जाता है कि आज भी समुद्र के निचले भाग पर रामसेतु मौजूद है.