

हिन्दू धर्म में गंगा को सबसे पूजनीय नदी माना गया है. गंगा के संबंध में अनेक पुराणों में कई कथाएं पढ़ने को मिलती है. महाभारत के सबसे प्रमुख पात्र भीष्म भी गंगा के ही पुत्र थे. आज हम आपको गंगा से जुड़ी कुछ ऐसी रोचक बातें बता रहे हैं, जो बहुत कम लोग जानते हैं.
प्राचीन समय में इक्ष्वाकु वंश में राजा महाभिष थे. उन्होंने बड़े-बड़े यज्ञ करके स्वर्ग लोक प्राप्त किया था. एक दिन बहुत से देवता और राजर्षि, जिनमें महाभिष भी थे, ब्रह्माजी की सेवा में आए. वहां गंगा भी उपस्थित थीं. तभी हवा के वेग से गंगा के वस्त्र शरीर पर से खिसक गए.
वहां उपस्थित सभी लोगों ने अपनी आंखें नीची कर ली, मगर राजा महाभिष गंगा को देखते रहे. जब परमपिता ब्रह्मा ने ये देखा तो उन्होंने महाभिष को मृत्युलोक (पृथ्वी) पर जन्म लेने का श्राप दिया और कहा कि गंगा के कारण ही तुम्हारा अप्रिय होगा और जब तुम उस पर क्रोध करोगे तब इस श्राप से मुक्त हो जाओगे.
ब्रह्मा के श्राप के कारण राजा महाभिष ने पूरूवंश में राजा प्रतीप के पुत्र शांतनु के रूप में जन्म लिया. एक बार राजा शांतनु शिकार खेलते-खेलते गंगा नदी के तट पर आए. यहां उन्होंने एक परम सुदंर स्त्री (वह स्त्री देवी गंगा ही थीं) को देखा. उसे देखते ही शांतनु उस पर मोहित हो गए.
शांतनु ने उससे प्रणय निवेदन किया. उस स्त्री ने कहा कि मुझे आपकी रानी बनना स्वीकार है, लेकिन मैं तब तक ही आपके साथ रहूंगी, जब तक आप मुझे किसी बात के लिए रोकेंगे नहीं, न ही मुझसे कोई प्रश्न पूछेंगे. ऐसा होने पर मैं तुरंत आपको छोड़कर चली जाऊंगी. राजा शांतनु ने उस सुंदर स्त्री का बात मान ली और उससे विवाह कर लिया.
विवाह के बाद राजा शांतनु उस सुंदर स्त्री के साथ सुखपूर्वक रहने लगे. समय बीतने पर शांतनु के यहां सात पुत्रों ने जन्म लिया, लेकिन सभी पुत्रों को उस स्त्री ने गंगा नदी में डाल दिया. शांतनु यह देखकर भी कुछ नहीं कर पाएं क्योंकि उन्हें डर था कि यदि मैंने इससे इसका कारण पूछा तो यह मुझे छोड़कर चली जाएगी. आठवां पुत्र होने पर जब वह स्त्री उसे भी गंगा में डालने लगी तो शांतनु ने उसे रोका और पूछा कि वह यह क्यों कर रही है?
उस स्त्री ने बताया कि मैं देवनदी गंगा हूं तथा जिन पुत्रों को मैंने नदी में डाला था वे सभी वसु थे जिन्हें वसिष्ठ ऋषि ने श्राप दिया था. उन्हें मुक्त करने लिए ही मैंने उन्हें नदी में प्रवाहित किया. आपने शर्त न मानते हुए मुझे रोका. इसलिए मैं अब जा रही हूं. ऐसा कहकर गंगा शांतनु के आठवें पुत्र को लेकर अपने साथ चली गई.
महाभारत के आदि पर्व के अनुसार, एक बार पृथु आदि वसु अपनी पत्नियों के साथ मेरु पर्वत पर घूम कर रहे थे. वहां वसिष्ठ ऋषि का आश्रम भी था. वहां नंदिनी नाम की गाय भी थी. द्यो नामक वसु ने अन्य वसुओं के साथ मिलकर अपनी पत्नी के लिए उस गाय का हरण कर लिया. जब महर्षि वसिष्ठ को पता चला तो उन्होंने क्रोधित होकर सभी वसुओं को मनुष्य के रूप में जन्म लेने का श्राप दे दिया.
वसुओं द्वारा क्षमा मांगने पर ऋषि ने कहा कि तुम सभी वसुओं को तो शीघ्र ही मनुष्य जीवन से मुक्ति मिल जाएगी, लेकिन इस द्यौ नामक वसु को अपने कर्म भोगने के लिए बहुत दिनों तक पृथ्वीलोक में रहना पड़ेगा. इस श्राप की बात जब वसुओं ने गंगा को बताई तो गंगा ने कहा कि मैं तुम सभी को अपने गर्भ में धारण करूंगी और तत्काल मनुष्य जीवन से मुक्त कर दूंगी. गंगा ने ऐसा ही किया. वसिष्ठ ऋषि के श्राप के कारण भीष्म को पृथ्वी पर रहकर दुख भोगने पड़े.
गंगा जब शांतनु के आठवे पुत्र को साथ लेकर चली गई तो वे बहुत उदास रहने लगे. इस तरह थोड़ा और समय बीता. शांतनु एक दिन गंगा नदी के तट पर घूम रहे थे. वहां उन्होंने देखा कि गंगा में बहुत थोड़ा जल रह गया है और वह भी प्रवाहित नहीं हो रहा है. इस रहस्य का पता लगाने जब शांतनु आगे गए तो उन्होंने देखा कि एक सुंदर व दिव्य युवक अस्त्रों का अभ्यास कर रहा है और उसने अपने बाणों के प्रभाव से गंगा की धारा रोक दी है.
यह दृश्य देखकर शांतनु को बड़ा आश्चर्य हुआ. तभी वहां शांतनु की पत्नी गंगा प्रकट हुई और उन्होंने बताया कि यह युवक आपका आठवां पुत्र है. इसका नाम देवव्रत है. इसने वसिष्ठ ऋषि से वेदों का अध्ययन किया है तथा परशुरामजी से इसने समस्त प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों को चलाने की कला सीखी है. यह श्रेष्ठ धनुर्धर है तथा इंद्र के समान इसका तेज है. देवव्रत ही आगे जाकर भीष्म कहलाए.