भगवान श्रीकृष्ण ने गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र को आखिर क्यों दिया श्राप


महाभारत काल में गुरु द्रोणाचार्य और उनकी पत्नी ने तमसा नदी के तट पर एक दिव्य गुफा में तपेश्वर नामक स्वयंभू शिवलिंग के समक्ष कठोर तपस्या की, भगवान शिव उनकी तपस्या से प्रसन्न हुए और उन्हें एक पुत्र का वरदान दिया। वरदान प्राप्त करने के कुछ समय पश्चात माता कृपि ने एक सुन्दर तेजश्वी बाल़क को जन्म दिया। जन्म लेते ही इस बालक के कण्ठ से हिनहिनाने की सी ध्वनि हुई जिससे इनका नाम अश्वत्थामा पड़ा।

अश्वत्थामा के मस्तक पर जन्म से ही एक अमूल्य मणि विद्यमान थी, जो उसे सभी भय और व्याधाओं से बचाए रखती थी। जब महाभारत का युद्व हुआ तो गुरू द्रोणाचार्य और उनके पुत्र अश्वत्थामा ने कौरवों का साथ दिया। महाभारत युद्ध में अश्वत्थामा कौरव-पक्ष के एक सेनापति थे और उन्होंने पांडवों के पुत्रों का छल से वध किया।

पुत्रशोक में जब पांडवों ने श्रीकृष्ण के साथ अश्वत्थामा का पीछा किया तो वे भाग गए। फिर भी जब अर्जुन ने उनका पीछा न छोड़ा तब अश्वत्थामा ने अर्जुन पर ब्रह्मास्त्र चल दिया। उससे बचने के लिए अर्जुन ने भी ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। महर्षि वेदव्यास के कहने पर अर्जुन ने अपना ब्रह्मास्त्र वापस लौटा लिया, लेकिन अश्वत्थामा को ब्रह्मास्त्र लौटाने का ज्ञान नहीं था।

तब उन्होंने अपने अस्त्र की दिशा बदलकर अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ की ओर कर दी। क्रोधित होकर भगवान श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा के माथे पर लगी मणि निकाल ली और कलयुग के अंत तक उन्हें पृथ्वी पर भटकने का श्राप दिया। तबसे अब तक अश्वत्थामा निरंतर पृथ्वी पर भटक रहे हैं।